नीरज कुमार महंत
जब आईपीसी में धारा 498-ए को शामिल किया गया था तो लोगों को लगा कि विवाहिता बेटियों के लिए सुरक्षा कवच प्रदान कर दिया गया है।
लेकिन क्या इस कानून ने सच में अपराध कम किये हैं?आज ये सवाल क्यों उठ रहा है ?
आज कुछ लोग ये भी कह सकते हैं कि कानून व्यवस्था लचर है या फिर लोगों में इस कानून का खौफ नहीं है।
दहेज प्रथा हमारे देश की उन प्रथाओं में से है जो भले ही सदियों पुरानी है लेकिन आज भी ज़िंदा है। कानून के मुताबिक तो ये प्रथा बरसों पहले खत्म कर दी गई है मगर असलियत में आज तक इस प्रथा की वजह से कई बेटियों ने अपनी जान गंवाई है।
कुछ लोग तो इतने हिंसक हो गए हैं कि किसी आदमखोर कि तरह शरीर को टुकड़ों में बांट देते हैं। जाने इतनी हिम्मत कहां से आ जाती है? या फिर ये कहें कि ऐसे लोग दिमागी तौर पर बहुत बीमार होते हैं। इस बीमारी का प्रभाव इतना गहरा और गंभीर होता है कि मानवता जैसे शब्दों का इनपर कोई असर नहीं होता।
ऐसी ही एक घटना कल सामने आई कि रांची की बेटी जो अपने पति के साथ बैंगलुरू में रह रही थी। उसकी उसके पति ने ही दहेज की वजह से निर्मम हत्या कर दी। क्या इसमें उस बेटी की गलती थी कि उसने दहेज का विरोध किया होगा और अपनी जान गंवाई होगी? या उन मां – बाप की जिन्होंने शादी होने तक उसी बेटी को घर की लक्ष्मी कह कर उसकी परवरिश की होगी?
या फिर उनकी जिन्होंने ऐसे निर्दय बेटे को यह सिखाया ही नहीं कि दहेज लेना और देना कानूनन अपराध है।
हम कुछ भी कर लें उन लोगों को ज़िंदा नहीं कर सकते जिन्हें ऐसी नीचता की वजह से अपनी जान गंवानी पड़ी है।
अगर हम कुछ कर सकते हैं, तो वो ये है कि आने वाली पीढ़ी को इसके बारे में ठीक वैसे ही परहेज करना सिखा दें जैसे ये कोई भयंकर बीमारी हो।
ऐसे मामलों से निजात पाने का एक और तरीका है कि ऐसे मां – बाप जो अपनी लालच की वजह से अपने ही बेटे की ज़िंदगी में ज़हर घोल देते हैं या तो उनके अपने ही उनके खिलाफ कार्रवाई करें या फ़िर प्रशासन को इसकी सुचना तत्काल में दें। ताकि ये अपराध काबू में आ सकें।
इस कानून के संदर्भ में एक बात और है कि कुछ महिलाएं या तो मर्जी से या फ़िर दबाव में आकर इसका दुरूपयोग करने से भी पिछे नहीं हटतीं। ऐसे में एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी उस समय मामले की जांच कर रहे अधिकारियों पर भी होती है कि मामले की गंभीरता से जांच करे।