प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना काल में फिर एक बार अपने मन की बात भी कह दी। कोरोना कालखंड में उनके मन की बात को सुनना भी जरूरी है। इस बार के मन की बात में पहली बार गरीब-मजदूरों को लेकर उनका दर्द छलका। चूंकि गरीब मजदूर अधिकतर गांव से ही महानगरों की ओर पलायन करते हैं। इसलिए उन्होंने गांवों को लेकर बड़ी गंभीर बातें कही हैं। उन्होंने माना है कि गांवों में नवोद्योगों की कई संभावनाएं हैं। क्योंकि मजदूर अब गांवों की ओर जा रहे हैं।
उनका मानना है कि हमारे गांव आत्मनिर्भर होते तो समस्या इस रूप में सामने नहीं आती। यानी कि प्रधानमंत्री यह कहना चाहते हैं कि गांवों में नये उद्योग लगाये जा सकते हैं। इसलिए अब उन्हें आत्मनिर्भर बनाना होगा। अब उनके पास क्या गांवों को लेकर क्या प्लानिंग है, ये अभी उन्होंने नहीं बताया है। वैसे भारत के गांवों में बिजली, पानी, सड़क और अन्य बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव है। ये प्रधानमंत्री भी जानते हैं।
गांवों में उद्योग की संभावनाओं को तलाशने से पहले गांवों में हमें वहां की आधारभूत संरचनाओं पर जोर देना होगा। शायद इसी के मद्देनजर प्रधानमंत्री ने सांसद आदर्श ग्राम योजना की शुरुआत की। चूंकि हम उसी गांवों में उद्योगों की कल्पना कर सकते हैं, जो गांव आदर्श स्थिति में पहुंच चुके हैं। सांसद आदर्श ग्राम
योजना का हाल
केंद्र प्रायोजित योजनाओं का भारत के गांवों में क्या हाल है, इससे भी प्रधानमंत्री बेखबर नहीं होंगे। हालांकि ग्रामीण विकास मंत्रालय अभी तक ये बताने में असमर्थ रहा है कि पिछले 6 साल में भारत के कितने गांव संपूर्ण रूप से आदर्श स्थिति में हैं। सांसद आदर्श ग्राम योजना अक्तूबर 2014 में शुरू की गयी थी। 2014 से 2019 तक तीन फेज में गांवों को बुनियादी सुविधाओं से लैस करना था। पिछले 5 सालों में भाजपा के सांसदों ने कितने गांवों को गोद लिया और गोद लिये गांवों की वर्तमान स्थिति क्या है, इसकी समीक्षा हुई कि नहीं, अगर हुई, तो धरातल पर इसका क्या फलाफल निकला, राम जानेेें।
हम यहां झारखंड के गांवों की बात करते हैं। झारखंड गांवों से भरा-पूरा राज्य है। यहां 32 हजार से अधिक गांव हैं। झारखंड गठन के बाद से ही लोकसभा चुनाव में यहां की अधिकतर सीटें भाजपा की झोली में गयीं। 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में सबसे अधिक सीटों पर भाजपा ने फतह की। यहां के सांसदों को सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत गांव को आदर्श बनाने का जिम्मा सौंपा गया। सांसदों ने खूब तामझाम से गोद लिए गांवों में आयोजन किये। कहते हैं योजनाओं के शिलान्यास के बाद अधिकतर सांसदों ने फिर पलट कर उस गांव का रुख नहीं किया। इसके बावजूद लगभग सभी सांसद फिर लोकसभा पहुंच गये। पांच साल में ग्रामीण विकास मंत्रालय या प्रधानमंत्री ने शायद ही सांसदों से पूछा हो कि आपके द्वारा गोद लिए कितने गांव आदर्श बने? 6 साल में कितने
गांव आदर्श बने?
पांच साल बाद बीत गये, गोद लिए गांवों की हालत क्या है, यह किसी से छिपी हुई नहीं है। यही हाल राज्यसभा सदस्यों की भी है। अब शायद उसके बारे में कोई चर्चा भी नहीं करता। इसपर शायद ही कभी राष्ट्रीय टीवी चैनलों पर बहस हुई या आंकड़े पेश किये गये हों।
दरअसल, प्रधानमंत्री की यह महत्वाकांक्षी योजना राष्ट्रीय पटल पर कभी नहीं उभरा। इसलिए लोगों का ध्यान भी नहीं गया। 2014 में जितने भी भाजपा सांसदों ने गांवों को गोद लिया, उसमें एक भी सांसद ने सांसद आदर्श ग्राम योजना के निर्धारित लक्ष्य को पूरा नहीं किया। ये है जमीनी हकीकत।
सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत करीब ढाई हजार गांवों को संवारनेे का लक्ष्य रखा गया था। झारखंड में सौ गांवों का लक्ष्य रखा गया था। इसके तहत झारखंड के छह जिले-चतरा, पलामू, देवघर, हजारीबाग, गिरिडीह और बोकारो के सौ अनुसूचित जाति बहुल गांवों को चयन किया गया था। इस पायलट परियोजना में गांवों में आधारभूत संरचना के निर्माण, पेयजलापूर्ति, एंबुलेंस की उपलब्धता आदि सुनिश्चित करना है।
इसके अलावा 2015-16 में मुख्यमंत्री स्मार्ट योजना के तहत ग्राम पंचायतों में सूचना तकनीक, अक्षय ऊर्जा, कृषि के उन्नत तकनीक व इ-गवर्नेंस के काम किये जाने हैं।
2020 में तो सांसद आदर्श ग्राम योजना मुहिम को जबर्दस्त झटका लगा है। 2019 से 2024 के लिए योजना के शुरू हुए दूसरे चरण में आधे से भी कम सांसदों ने गांव गोद लिए हैं। इससे चिंतित ग्रामीण विकास मंत्रालय ने सभी सांसदों को पत्र जारी कर गांव को गोद लेने की अपील की। यह हालात तब है जब 2019 में जीते नये सांसदों को गांवों को गोद लेने की ट्रेनिंग मिल चुकी है।
ग्रामीण विकास मंत्रालय ने 19-20 दिसंबर 2019 को ग्राम विकास मंत्रालय ने इस मसले पर अहम बैठक बुलाई थी, जिसमें पता चला कि सांसदों ने करीब 250 गांवों को ही गोद लिया है। अलबत्ता बैठक के बाद और 300 गांव जरूर जुड़ गये।
ग्रामीण विकास मंत्रालय ने सभी राज्यों के मुख्य सचिवों से कहा है कि वे स्थानीय स्तर पर ओरिएंटेशन प्रोग्राम कर सांसदों को गांव गोद लेने के लिए प्रेरित करें।
2019 में सिर्फ 3 सांसदों ने गांवों को गोद लिया
हम यहां बता दें कि मई 2019 में 12 सांसदों में से सिर्फ खूंटी सांसद अर्जुन मुंडा ने सर्वाधिक 5, रांची सांसद संजय सेठ 1 और गोड्डा सांसद निशिकांत दुबे ने भी एक गांव को गोद लिया है।
पलायन मजदूरों की नियति
ऐसे हालात में गांवों में नवोद्योग का सपना जरूर देखा जा सकता है कि लेकिन इसे धरातल पर उतारना कोरी कल्पना साबित होगी। गांव से महानगरों में मजूदरों का पलायन करना उनकी नियति है। गांव-ग्रामीण के लिए अभी तक भारत में ऐसा मसीहा पैदा नहीं हुआ, जो इनकी सुध ले सके। नवोद्योगों का सपना दिखाना आसान है, उसे पूरा करना आसान नहीं है। दरअसल हमारे नुमाइंदे सिर्फ वोट लेने के समय गांवों की पगडंडियों पर किसी तरह गिरते-हांफते गांव-ग्रामीण तक पहुंच पाते हैं। उन्हें गांव की कच्ची सड़कों की धूल फांकनी पड़ती है। मजबूरी है क्योंकि यहीं से थोक वोट मिलता है।