बस्तर में आदिवासियों के बीच काम कर रहीं बेला भाटिया कैंब्रिज विश्वविद्यालय से पीएचडी कर चुकी हैं. फिलहाल वह छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में आदिवासियों के लिए काम कर रही हैं. हाल ही में लीगल एड के सदस्यों को छत्तीसगढ़ छोड़ने के आदेश के बाद से बेला बस्तर में ही भूमिगत हैं. उन्होंने यह पत्र लिखकर घोषणा की है कि वे किसी भी हालत में बस्तर नहीं छोड़ेंगी. भाटिया को छत्तीसगढ़ सरकार ने राज्य छोड़कर चले जाने का आदेश दिया है. हालांकि उन्होंने सरकार के इस आदेश को मानने से इनकार कर दिया है. अगर कल आप को कोई नक्सली करार कर दे तो क्या आप नक्सली हो जाएंगे? अगर कोई आप को कहे “बस्तर छोड़ो” तो क्या आप छोड़ देंगे? अभी हाल ही में मेरे साथ ऐसा हुआ है. क्या हुआ और क्यों हुआ- यह मैं आप को बताना चाहूंगी.
मैं एक स्वतंत्र समाजशास्त्री व सामाजिक कार्यकर्ता हूं. पिछले तीन दशकों में मैंने देश के कई राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों मे रह कर काम किया है. वहां के लोगों की परिस्थिति को समझने की कोशिश की. खास कर गरीब लोगों की, दलितों की, आदिवासियों की, और अन्य पिछड़े वर्गों की. उनकी स्थिति को बनाए रखने या बदलने में सरकार का हाथ या योगदान, उनके बीच में उठ खड़े हुए आन्दोलन, उनके जीवन के उतार-चढ़ाव. इस सफ़र ने मुझे हमारे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की हकीकत से वाकिफ कराया.
साथ-साथ उन चुनौतियों से जिनका हम सब को सामना करना होगा. अगर हम सचमुच देश के संविधान के प्रति समर्पित है. एक ऐसा संविधान जिसमे देश के सभी नागरिकों के लिए आज़ादी, समान अधिकार, और भाईचारा (लिबर्टी, इक्वलिटी, फ्रटर्निटी) व एक सम्मानित जीवन की कल्पना की गई है, एक वायदा किया गया है, और इस लक्ष्य तक पहुंचने का एक रास्ता भी सुनिश्चित किया गया है. युद्ध की धारा अंदरूनी क्षेत्रों में रह रही आदिवासी जनता के रोज के जीवन का अंग बन गई है
मेरे जीवन के सफ़र का एक पड़ाव बस्तर रहा है. पिछले एक दशक में, मैं कई बार बस्तर आई हूं और यहां रह रही हूं. जैसा की हम जानते है बस्तर में सरकार और माओवादियों के बीच युद्ध चल रहा है.
जगदलपुर जैसे शहर में इसका आभास नहीं होता पर युद्ध की धारा अंदरूनी क्षेत्रों में रह रही आदिवासी जनता के रोज के जीवन का अंग बन गई है. अगर कोई युद्ध दस सालों से चल रहा हो, जैसा की बस्तर में, तो आप अनुमान लगा सकते हैं की युद्ध से पीड़ित जनता ने कितनी वेदनाएं सही होंगी.
जन आंदोलनों का अध्ययन राजनीति व समाजशास्त्र का भाग है. मैंने अपनी पीएचडी कैंब्रिज विश्वविद्यालय से की थी और मेरी पीएचडी का विषय था– मध्य बिहार का नक्सलवादी आंदोलन.
मैंने यह विषय इसलिए चुना था क्योंकि मैं समझना चाहती थी की आखिर ऐसे कौन से कारण है जिनकी वजह से एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में नागरिकों ने अपनी ही सरकार के खिलाफ हथियार उठाने का निर्णय ले लिया.
क्या सरकार अपने जवाब में आन्दोलन के उत्पन्न होने के पीछे के मूल कारणों को ध्यान में रख पाई? क्या सरकार के जवाब से स्थिति सुलझी या और उलझ गई? पीएचडी के बाद मैं कुछ साल दिल्ली की एक शोध संस्थान सीएसडीएस में कार्यरत रही. इस दौरान मैंने तेलंगाना के नक्सलवादी आंदोलन का अध्ययन किया.
2006 के बाद से बस्तर के सलवा जुडूम का. इसी बीच में योजना आयोग ने ग्यारहवें प्लान की तैयारी के दौरान एक विशेषज्ञों की टीम बनाई. जिसमें मैं भी शामिल थी.
टीम को जिम्मेदारी सौंपी गई कि देश के उन सभी इलाकों का अध्ययन करे जहां खेतिहर असंतोष है और उनकी वजह को समझ कर सरकार को सलाह दें कि सरकार की उचित नीति क्या होनी चाहिए. टीम में डी बंद्योपाध्याय, बीडी शर्मा, दिलीप सिंह भूरिया, एसआर संकरन, केबी सक्सेना, के बालगोपाल, इएएस सरमा, प्रकाश सिंह व वर्तमान राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एके डोभाल भी शामिल थे.
रिपोर्ट में हमने सलाह दी कि देश की सुरक्षा तभी हो सकती है अगर देश के नागरिकों के अधिकार सुरक्षित रहें. सरकार को इतिहास से सीखना चाहिए. 1967 में पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी सब -डिवीज़न के नक्सलबाड़ी गांव में खेतिहर मजदूरों और छोटे किसानों का ज़मींदारों (जिनको वहां जोतेदार कहते हैं) के विरोध में जो आंदोलन हुआ वह उनकी भूख और बरसों के शोषण का नतीजा था. इन लोगों का सरकार से विश्वास उठ गया था.
उन्हें लगने लगा था की सरकार लोकतांत्रिक होने के बावजूद समान नागरिकता को नहीं मानती. सरकार को उनकी भूख की परवाह नहीं थी बल्कि ऊंची जातियों और वर्ग के लोगों के हितों की सुरक्षा की परवाह थी.
उस साल पूर्वी भारत में एक भयंकर अकाल पड़ा था और आम ग्रामीणों का जीवन संकट में था. इसी असुरक्षा ने नक्सलबाड़ी आंदोलन और बाद में नक्सलवाद को जन्म दिया.
सलवा जुडूम का अध्ययन करते समय मैंने पाया की उस दरम्यान ऐसा बहुत कुछ हुआ जो नहीं होना चाहिए था
हमने अपनी रिपोर्ट में यह कहा था कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत नागरिकों के मूल अधिकारों की सुरक्षा में ही देश की सुरक्षा है. अगर एक तरफ सरकार की नीतियों द्वारा आम जनता के बुनियादी अधिकारों का हनन हो रहा हो और दूसरी तरफ पुलिस व अर्ध-सैनिक बलों द्वारा ‘सुरक्षा’ के लिए सैन्य कार्यवाही हो रही है तो ऐसी स्थिति में आम जनता का सरकार से अलगाव बढ़ेगा और हथियारबंद आंदोलन का फैलाव होगा.
सलवा जुडूम का अध्यन करते समय मैंने पाया की उस दरम्यान ऐसा बहुत कुछ हुआ जो नहीं होना चाहिए था. हजारों घरों को जलाना, कई सौ आदिवासियों का कत्ल, सौ से ऊपर महिलाओं का बलात्कार, तक़रीबन लाख लोगों का अपने गांव से पलायन.
एक समय आया जब मुझे जरूरी लगने लगा कि मैं लोगों को अपने अधिकारों के लिए लड़ने में मदद करूं. मैं एक शोधकर्ता थी, और साथ में नागरिक भी. मैंने देश के अन्य राज्यों में भी जब-जब काम किया था, वहां भी यह जिम्मेदारी निभाई थी, तो बस्तर में क्यों नहीं? यह सोच कर मैंने आदिवासी लोगों के साथ उनके संवैधानिक हकों के लिए काम करना शुरू किया. मैं मानती हूं कि हमारे जैसे देश में जो लोग शिक्षित हैं उनकी समाज के प्रति जिम्मेदारी बढ़ जाती है.
एक सशक्त लोकतंत्र में इतनी ताकत होनी चाहिए की वह अपने नागरिकों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित न करें
एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में हकीकत को सरकार के सामने लाना, प्रश्न पूछना, पीड़ित जनता को गोलबंद करना, उनमें अपनी चुप्पी तोड़ने का साहस भरना, और ज़रूरत पड़ने पर सरकार के समक्ष लोकतांत्रिक तरीकों से विरोध करना, यह सभी हमारे नागरिक अधिकारों के दायरे में आता है. एक सशक्त लोकतंत्र में इतनी ताकत होनी चाहिए की वह अपने नागरिकों को इन अधिकारों से वंचित न करें.
इसी सोच के तहत अक्टूबर 2015 और जनवरी 2016 को जब बीजापुर जिले के दो गांवो में सामूहिक बलात्कार और जनवरी में सुकमा जिल्ले के एक गांव में यौन हिंसा की वारदातों का पता चला तो इनकी जांच करना ज़रूरी हो गया.
अन्य राज्यों से आई एक महिला टीम के साथ जांच में इन घटनाओं में सच्चाई पाने पर हमने बीजापुर जिला कलेक्टर के सामने महिलाओं को पेश किया. उनके वहां बयान हुए और जिला प्रशासन की संतुष्टि के बाद एफआईआर दर्ज हुई.
बहनों के बयानों और हमारी जांच में हमने पाया था की यह गलत काम पुलिस व सुरक्षा बलों के कुछ सदस्यों द्वारा किया गया था.
पिछले दो महीनों में बस्तर संभाग के कई अन्य संगठनों और राजनैतिक दलों ने भी इन घटनाओं की जांच कर इन्हें सही पाया है. जैसे की सर्व-आदिवासी समाज, आदिवासी महासभा, कांग्रेस पार्टी आदि.
राष्ट्रीय महिला आयोग व राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने भी जांच की है. अभी गये हफ्ते भी कुछ सांसद इन घटनाओं की जांच करने आये हुए थे. कई पत्रकारों ने भी जांच कर घटनाओं के बारे में लिखा है.
सामाजिक एकता मंच के द्वारा भी मुझे नक्सली कह कर बस्तर छोड़ने के लिए कहा गया है
वह गांव जहां यह घटनाएं घटी नक्सल प्रभावित क्षेत्र में आते हैं. इसका मतलब यह नहीं निकाला जा सकता की यह महिलाएं या उनके परिवार के लोग नक्सली है. हम सब इस बात से सहमत होंगे कि किसी भी स्थिति में महिला का शरीर युद्ध का मैदान नहीं हो सकता. बलात्कार और यौन हिंसा अपराध है चाहे कोई भी करे.
इस तरह की हरकतों पर अंकुश रखने के लिए कानून हैं जिसके तहत कार्रवाई होनी चाहिए. एक लोकतंत्र की पुलिस या सुरक्षाकर्मी जब क्षेत्र में होता है तो वह हम सब नागरिकों का प्रतिनिधि होता है. उसके कार्य के दौरान अगर उससे गलती होती है और इस गलती को अगर हम सामने लाते हैं तो वह इसलिए की गलतियों को सुधारा जा सके और पीड़ित को न्याय मिले न की उसे नक्सलवाद का समर्थक बता दिया जाय.
पर आज यही माना जा रहा है. मुझे यह बात अजीब लगती है. हम कानून का सही अमल हो ऐसा जोर दे रहें हैं और हमें कहा जा रहा है की आप गैर क़ानूनी संगठन का समर्थन कर रहे हैं.
यह बात मेरे संदर्भ में सब से पहले बीजापुर में नक्सली पीड़ित संघर्ष समिति द्वारा कही गई जब हम दूसरी घटना का एफआईआर दर्ज कराने की प्रक्रिया में थे (20 जनवरी). एक हफ्ते बाद यही बात उन्हीं के द्वारा बीजापुर में आयोजित रैली में भी दोहराई गई. 20 जनवरी को ही मैंने उनमें से कुछ लोगों के साथ बात की थी ताकि मैं उनके नज़रिए को समझ सकूं.
उनकी बात से मुझे यह समझ में आया की उन्हें इस बात की तकलीफ थी कि मैं और मेरे जैसे लोग उन घटनाओं की जांच करने नहीं आते, न ही रिपोर्ट लिखते हैं या बयान देते हैं जब उसी क्षेत्र के गांव के लोग नक्सली हिंसा के शिकार होते हैं.
हाल ही में ऐसे ही कारणों का संदर्भ देते हुए जगदलपुर में सामाजिक एकता मंच के द्वारा भी मुझ पर यह आरोप दोहराया गया है और मुझे नक्सली कह कर बस्तर छोड़ने के लिए कहा गया है.
वे 17 मार्च को सुकमा जिले के एक गांव में एक बच्ची का माओवादियों के लैंडमाइन ब्लास्ट में मारे जाने का उदहारण दे रहे थे. नि:संदेह यह घिनौना अपराध है, जिसने भी किया हो. शायद इन व्यक्तियों और संगठनो को इस बात की जानकरी नहीं है कि मैंने मेरे लेखों में कई बार माओवादियों द्वारा किये गये मानवाधिकारों के उल्लंघन का जिक्र और टीका की है और करती रहूंगी. मैं बस्तर में रहने आई थी. जो कुछ हुआ है इसके बावजूद मेरी कोशिश रहेगी की मैं यही रहूं. मैं बस्तर में रहने आई थी. जो कुछ हुआ है इसके बावजूद मेरी कोशिश रहेगी की मैं यही रहूं. लोकतंत्र एक व्यवस्था ही नहीं बल्कि मूल्य है. इसके मूल में शायद यह विचार है कि हम केवल खुद का ही नहीं पर दूसरों के हित की भी सोचें. एक खुलेपन का माहौल बनाये जहां सब जी सकें. ऐसा माहौल जहां डर न हो. कोई दबाने वाला या दबने वाला न हो. जहां हम आमने-सामने रह कर बात कर सकें. विचारों का आदान-प्रदान कर सकें. जहां सब का भला हो सके. मेरी आशा है की बस्तर में हम ऐसे लोकतंत्र की स्थापना कर पायेगें.
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