रांची (झारखण्ड) : म्यांमार के रखाइन प्रांत में पिछले लगभग दो सौ सालों से निवास कर रहे रोहिंग्या मुसलमानों पर सेना और स्थानीय नागरिकों द्वारा सम्लित रूप से जिस क्रूरता के साथ हमला और कत्लेआम किया गया, वह अपने आप में इस सदी के लिए एक शर्मनाक त्रासदी है। विचलित करती तस्वीरों और हत्याओं के हिंसक वीडियो के सामने आने के बाद, म्यांमार सरकार द्वारा इसका समर्थन और बचाव किया जाना न केवल मानवता के खिलाफ अक्षम्य अपराधों की श्रेणी में आता है, बल्कि यह एक तरह का युद्ध अपराध है। इस हिंसा से प्रभावित, लगभग दो लाख रोहिंग्या मुसलमान बंग्लादेश चले गए, लेकिन अभी यह कहना मुश्किल है कि कौन सा देश इन्हें अपना नागरिक स्वीकार करेगा और कब तक इस संकट का कोई स्थायी समाधान निकल पाएगा। लेकिन, इस तथ्य से कोई इनकार नहीं है कि इस धरती पर उन रोहिंग्या मुसलमानों का भी एक हिस्सा है और सम्मानजनक जीवन के लिए वह उन्हें मिलना ही चाहिए। आखिर इस कत्ल-ओ-गारत में शामिल लोगों को यह बताना चाहिए कि वह इस धरती को छोड़कर कहां चले जाएं?
बहरहाल, म्यांमार सरकार द्वारा निर्मित इस त्रासदी के बीच चाहे कुछ भी कहा जाए, लेकिन इस बात में कोई शक नहीं है कि भारत भी रोहिंग्या मुसलमानों के इस दुःख दर्द का साझीदार होने से निर्णायक रूप से चूक गया। भारत की सभ्यता और उसकी सामान्य सांस्कृतिक चेतना स्वाभाविक रूप से उत्पीड़न और हिंसा के खिलाफ खड़े होने की सदैव से रही है। पीड़ित लोग और समुदायों के साथ खड़ा होना भारत की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है। लेकिन इस पूरे मसले पर मोदी सरकार द्वारा जो भूमिका अदा की गई उसे भुला पाना संभव नहीं होगा। भारत ने रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ म्यांमार सरकार की हिंसक कार्यवाही का न केवल समर्थन किया, बल्कि इस देश में कथित रूप से रह रहे दो लाख अवैध रोहिंग्या मुसलमानों को बाहर निकालने के लिए शीघ्र अभियान चलाने का ऐलान भी किया। गौरतलब है कि यह अभियान ऐसे वक्त में चलाया जाएगा जब कि दक्षिण पूर्व एशिया में रोहिंग्या समस्या का कोई तात्कालिक हल हाल-फिलहाल में नजर नहीं आता है। सवाल यह भी है कि भारत से खदेड़े गए ये लोग कहां और किस देश में जाएंगे?
आखिर ऐसा क्यों हुआ कि हर वक्त पीड़ित और सताए गए लोगों के साथ स्वाभाविक रूप से खड़ा होने वाला भारत इस बार एकदम चुप है? आखिर आज भी यहां लाखों तिब्बती शरणार्थी रहते हैं, नेपाली रहते हैं, श्रीलंका से आए तमिलों ने भी शरण ली है। स्वयं आंग सांग सूची भी अपने निर्वासन काल में भारत में लंबे समय तक रह चुकी हैं। पाकिस्तान से सिख भी यहां शरणार्थी बने हैं। एक दौर में बांग्लादेशी मुसलमानों को भी भारत ने शरण दी थी। फिर आखिर भारत ने अपने दरवाजे रोहिंग्या मुसलमानों के लिए क्यों नहीं खोले? आखिर ऐसी क्या मजबूरी थी कि हम इंसानियत की बर्बर हत्या का तमाशा देखते रहे और बेशर्मी से उसका समर्थन भी करते रहे? जबकि राजनैतिक और सामरिक रूप से म्यांमार भारत का कोई नुकसान करने की स्थिति में नहीं है। फिर भी हम उन पीड़ितों के साथ खड़े क्यों नहीं हुए?
दरअसल इसके पीछे पूरी तरह से हिन्दुत्व की राजनीति है। नरेन्द्र मोदी और उनकी टीम को लगता है कि अगर सरकार दृढ़तापूर्वक हर कदम पर मुस्लिम विरोधी हिन्दुत्व कार्ड पर कायम रहे तो वह आगामी लोकसभा चुनाव में अपनी राह आसान कर लेगी। मोदी समझते हैं कि घोर मुसलमान विरोधी रैडिकल हिन्दुत्व कार्ड खेलकर ही आगामी चुनाव की जमीन पुख्ता की जा सकती है। यह मोदी की मजबूरी भी है क्योंकि आगामी लोकसभा चुनाव में उनके पास उपलब्धि के बतौर आवाम के सामने रखने के लिए कुुछ नहीं है। केवल एंटी-मुस्लिम पाॅलिटक्स ही मोदी की नाकामी ढक सकती है। यही दिखाने की कोशिश में नरेन्द्र मोदी सरकार को रोहिंग्या नागरिकों के उत्पीड़न को जस्टीफाई करते हुए एक तरह से समर्थन देना पड़ा। मोदी सरकार को पता है कि अगर उसने रोहिंग्या मुसलमानों के लिए अपने दरवाजे खोले तो उसे कोई चुनावी फयादा नहीं मिलेगा बल्कि उनकी हत्या का समर्थन ही कट्टर हिन्दुत्व को और धार देगा।
लेकिन हर बात को राजनैतिक फायदे के चश्में से देखने की आदी मोदी सरकार ने इसी बहाने भारत के अंदर नष्ट होती सामाजिक-सांस्कृतिक एकता को भी बेनकाब कर दिया। अगर कुछ-एक मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और सिविल सोसाइटी को छोड़ दें ंतो हिन्दू समाज में भी इस कत्लेआम को लेकर कोई हलचल नहीं थी। यह सब दिखाता है कि हम अपने समाज के अंदर मुसलमानों के खिलाफ दुर्भाव से कितने भर गए हैं। यही नहीं हमारी संवेदनाएं मर गई हैं। दरअसल इस पूरे प्रकरण में भारत पूरी दुनिया समक्ष अपने मानवतावादी किरदार में फेल हो गया। यह चुप्पी बताती है कि हमारी संवेदनाओं का जनाज़ा निकल चुका है। हमारे समाज में धार्मिक ध्रवीकरण की खाईं लगातार गहरी हो रही है और इसने हमारी बची खुची संवेदना को चयनात्मक बना दिया है। अगर आज मुसलमानों पर संकट है तो उससे हिन्दू या गैर मुसलमानों को कोई फर्क नहीं पड़ता। क्या यही संकट अगर गैर मुसलमानों के साथ आया होता तो भारत की प्रतिक्रया एकदम बदली हुई नहीं रहती? दरअसल अब हम मुसलमानों के किसी संकट को अब अपना नहीं मानते। यह विभाजन बहुत खतरनाक है।
कुल मिलाकर रोहिंग्या मुसलमानों के कत्लेआम पर हमारी चुप्पी हमारे जिंदा लाश बनने के साथ, समाज के धार्मिक विभाजन का एक गहरा संदेश भी है। जिसे पढ़ना न केवल जरूरी है बल्कि इसे पाटने के लिए तत्काल आगे आना होगा। अन्यथा आने वाला वक्त एक भयानक काली रात लाएगा।
लेखक : हरेराम मिश्रा
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