झारखण्ड के मुख्य मंत्री रघुवर दास अक्सर गाँव व वंचित परिवारों के विकास को अपनी सरकार के मुख्य प्राथमिकताओं में गिनते हैं. परन्तु, उनकी सरकार की नीतियाँ व गाँवों की स्थिति कुछ अलग ही कहानी बताती है. अभी कुछ दिनों पहले संथाल परगना के कुछ गाँवों में स्थानीय प्रशासन द्वारा मजदूरों के शोषण के कई उदहारण देखने को मिले. गोड्डा के बोआरीजोर और सुन्दरपहाड़ी प्रखंड में ऐसे कई मज़दूर मिलें जिन्होंने महीनों पहले नरेगा में काम किया था, पर अब तक मज़दूरी की राह देख रहे थे. दुमका के शिकारीपाड़ा प्रखंड के मजदूरों का कहना था कि उन्हें नरेगा कर्मियों द्वारा बहुत मुश्किल से रोज़गार मिलता है, वह भी भीख की तरह और न कि उनके अधिकार के रूप में. हालांकि पूरा राज्य सुखाड़ग्रस्त है और गाँवों में रोज़गार की अत्यंत आवश्यकता है, भ्रमण किए गए आठों गाँवों में कही भी नरेगा का काम नहीं चल रहा था.
यह केवल संथाल परगना की स्थिति नहीं है. झारखण्ड के हर कोने में सैंकड़ों ऐसे मजदूर मिलेंगे जो गाँव में रोज़गार न मिल पाने के कारण भूख व गरीबी से जूझ रहे हैं. हालांकि नरेगा मजदूरों को समय पर काम व भुगतान देना प्रशासन का कानूनी दायित्व है, झारखंड का स्थानीय प्रशासनिक तंत्र मजदूरों की दुर्दशा के प्रति बिलकुल उदासीन हैं. मजदूरों के प्रति ऐसी गैर-जवाबदेही का रवैया रघुवर सरकार के “सबका साथ, सबका विकास” नारे के खोखलेपन को उजागर करता है. मुख्य मंत्री अक्सर कहते हैं कि एक समय वे स्वयं एक कारखाने में मजदूर थे, लेकिन वे अपने ही शासन में मजदूरों का हित सुनिश्चित करने में असमर्थ हैं.
इस राजनैतिक व प्रशासनिक केन्द्रीकरण के दौर में जब झारखण्ड सरकार ने विकेंद्रीकृत नियोजन के लिए बहुत धूम धाम से ‘योजना बनाओ अभियान’ चलाया, तब राज्य में एक नई आशा जगी. इस अभियान का मुख्य उद्देश्य नरेगा व 14वें वित्त आयोग की अनुशंसाओं के अनुसार ग्राम पंचायतों को मिलने वाली राशि से कार्यान्वयन के लिए योजनाओं का चयन करना था. मुख्य मंत्री के नेतृत्व में राज्य के सभी मंत्रियों व अनेकों विधायकों ने गाँव-गाँव जाकर नियोजन में भाग लिया. झारखण्ड में पहली बार नरेगा योजनाओं का चयन राजनैतिक चर्चाओं का मुद्दा बना. अभियान का एक अहम उद्देश्य था सिंचाई के लिए बारिश के पानी को रोकने के लिए जल संचन की योजनाओं का चयन करना. यह उद्देश्य काफ़ी हद तक पूरा भी हुआ; अभियान में चयनित कुल 10 लाख नरेगा योजनाओं में 1.3 लाख योजनाएं सिर्फ डोभों की ही थी.
पर अब झारखण्ड सरकार ने ग्राम सभाओं के कानूनी संकल्पों का उलंघन करते हुए नरेगा के लिए चयनित डोभों को कृषि विभाग द्वारा मशीनों से बनाने का निर्णय लिया है. यही नहीं, मशीन से डोभा बनाने के खर्च का 10 प्रतिशत हिस्सा किसानों से ही वसूला जाएगा. अभियान में ग्रामीणों को उनके द्वारा चयनित योजनाओं पर काम देने का वादा करने के बाद मशीनों से डोभा खुदवाने का निर्णय विपक्ष के कुछ नेताओं द्वारा अभियान पर की गई टिप्पणी “मूर्ख बनाओ अभियान” को शायद सही करार देता है. अब तो यह भी लगता है कि सरकार ने यह अभियान केवल अपने राजनैतिक जन संपर्क बढ़ाने के लिए ही किया.
2011 में हुए सामाजिक, आर्थिक व जाति जनगणना के अनुसार झारखण्ड के लगभग 26 लाख ग्रामीण परिवारों के रोज़गार का मुख्य स्त्रोत अकुशल मज़दूरी है. सुखाड़ में तो कई अन्य परिवार भी अकुशल मज़दूरी पर निर्भर होंगे. देश में दशकों से सुखाड़ से निपटने के लिए एक प्रमुख उपाय रहा है बड़े पैमाने पर मजदूरों के लिए मिट्टी के काम खोलना, लेकिन झारखण्ड सरकार के लिए शायद मजदूरों की रोज़ी-रोटी सुनिश्चित करने के अधिक ज़रूरी है जेसीबी मशीन मालिकों का मुनाफ़ा बढ़ाना. मुख्य मंत्री की सोच है कि केवल मशीनों से ही डोभे बारिश शुरू होने से पहले बन सकते हैं. पर अगर मज़दूरी पर निर्भर राज्य के 26 लाख परिवारों में से आधे परिवारों को भी इन एक लाख डोभों पर रोज़गार मिले, तो ये सब मात्र 15 दिनों के अन्दर तैयार हो जाएंगे. इससे डोभों के निर्माण के साथ साथ मज़दूरों के हाथ कुछ पैसा भी आएगा.
मजदूरों के शोषण को रोकने व सुखाड़ में भूख, गरीबी व पलायन को कम करने के लिए बड़े स्तर पर रोज़गार सृजन करने के लिए राजनैतिक इच्छा शक्ति की कमी दिख रही है. अगर इस सरकार को मजदूरों के हित की वास्तव में चिंता होती, तो मशीन मालिकों को 200 करोड़ रुपए देने के बजाए नरेगा मज़दूरों की मज़दूरी 167 रुपए से बढ़ाकर कम से कम 212 रुपए की जाती, जो राज्य की वर्तमान न्यूनतम मज़दूरी है.
रघुवर दास जितनी सतर्कता से कॉर्पोरेट घरानों का कारोबार बढाने के लिए काम कर रहे हैं, उतनी ही मुस्तैदी से अगर झारखण्ड के मजदूरों को समय से काम व मज़दूरी देते, तो आज मजदूरों की यह स्थिति न होती. अब सवाल यह है कि क्या बदलते झारखण्ड में नरेगा मजदूरों का जीवन भी कभी बदलेगा?
लेखक : जेम्स हेरेंज (राज्य समन्वयक नरेगा वाच)